स्वर्ण पॉलिश वाले एक भव्य सिंहासन पर एक ओर को झुके हुए बाबा बैठे हैं ! दाहिना हाथ कुर्सी के डिजाइनर हत्थे पर रखा हुआ है और बायाँ हाथ कभी अपने श्रद्धालु भक्तों को उनके प्रश्नों के उत्तर समझाने में भाव-भंगिमाएं बनाने में व्यस्त होता है , तो कभी अपने सिर पर अपने बचे-खुचे डाई किये हुए रेशमी बालों पर चला जाता है ! या अंतत : थक कर कुर्सी के हत्थे पर टिक जाता है ! बाबा की शोभा देखते ही बनती है ! जैसे किसी राजघराने के इकलौते वारिस हों ! मखमली लिबास और जड़ाऊ जूतियाँ !
एयर-कंडीशंड हॉल में भक्तों के समक्ष ऐसे विराजमान हैं , जैसे कैलाश-पर्वत पर भोले शंकर !
एक भक्तिनी ने खड़े होकर पूछा - " बाबा , मेरा बेटा रोटी नहीं खाता है ! क्या करूं ? "
"ह्म्म्म !" बाबा ने गम्भीर मुद्रा में एक दार्शनिक की तरह सोचते हुए पूछा , "तुम्हारे पति क्या करते हैं ? "
"जी बाबा , वो तो किसी कोयले की खदान में काम करते हैं ! कहते हैं कि एक दिन खूब बड़ा बाबा बनूंगा !"
बाबा ने बाहिने हाथ को इस्तेमाल करना शुरू किया -"ऐसा करो , उसे तलाक दे दो और दूसरी शादी करलो ! बच्चा खाना खाने लग जायेगा !" (बाबा लेफ्टी हैं और लेफ्टी होना बुद्धिमत्ता की पहचान माना जाता है ) भक्तिनी के चेहरे पर कृतज्ञता पूर्ण मुस्कान आई और हॉल गूँज उठा -" जय बाबा की !!!"
वह हाथ जोड़ कर शीश नवाकर निश्चिन्त मुद्रा में बैठ गयी !उसे अपने ऐसे दुर्लभ प्रश्न का उत्तर मिल चुका था , जो शायद उसे बड़े-बड़े एम.डी. डॉक्टर और हैल्थ -स्पेशलिस्ट भी न दे पाते !!
बाबा के उत्तरों से भक्तगणों की जिज्ञासा ऐसे शांत हो जाती थी , जैसे मुंबई में सालों से संघर्षरत किसी नवयुवक को एकता कपूर के टीवी सीरियल में रोल मिलने पर उसकी बेचैनी समाप्त हो जाती है ! भक्तगणों को लगता था जैसे बाबा ने दार्शनिकता और दुनियादारी में कई शोध कर रखे हैं ! अभिभूत हुए जाते थे उनकी हर अदा पर ! अपनी जीवन भर की गाढ़ी कमाई उनपर न्योछावर करने को तैयार रहते थे !जाने क्या सम्मोहन था उनकी बातों में कि जो लोग अपने माता-पिता, बुजुर्गों की बात सुनने को तैयार नही होते थे , वे उनकी हर बात को देवाग्या समझकर सर-माथे पर रखते थे ! जो पत्नियाँ अपने पति को बात-२ में ऑंखें दिखातीं थीं , बाबा के हर शब्द पर कुर्बान हुई जाती थीं !
कुछ तो था बाबा में ! या फिर यूँ कहिये भक्तों में ! और वो था- उनका अंध विश्वास, अंध भक्ति और आज की तेज़ रफ्तार जिंदगी की उलझनें, जिन्हें बेचकर उनका येन-केन-प्रकारेण समाधान खरीदना चाहते थे ! फिर चाहे उसकी कीमत उनकी जीवन भर की पूँजी ही क्यूँ न हो ! वह पूँजी , जिसका १% भाग भी वे किसी भूखे को एक वक्त की रोटी खिलाने, या ठंड में सड़क के किनारे ठिठुरते किसी जरुरतमन्द को एक कपड़ा उढ़ाने पर खर्च करना निरी फ़िज़ूल खर्ची और उनकी आदत बिगड़ना समझते थे !
आखिर ऐसा क्यों था ? कि उन भक्तों को जिंदगी के कड़वे सच नगण्य लगते थे और बाबा के वचन अनमोल ! जवाब दिया था Karl Marx ने १३० साल पहले , कि " religion is the opium of masses..."
आज व्यक्ति तेजी से भागते जीवन की दौड़ में आगे बढने और निजी जरूरतों को पूरा करने के संघर्ष में इतना व्यस्त है कि उसके पास दो पल रुककर यह सोचने का भी समय नहीं है कि में कहाँ जा रहा हूँ , और क्यों ? ऐसे में उसके थके हुए दिलोदिमाग को विश्राम की जरूरत महसूस होती है और इसके लिए वह ऐसे साधन की तलाश करता है, जो कुछ समय के लिए उसके दुःख-दर्द भुला कर हर छोटी -बड़ी परेशानी से निजात दिला दे ( झूठे को ही सही ) ! और ऐसा व्यक्ति उसे यदि मिल जाये , तो वह उसे अपना भगवान मान बैठता है ! बिना किसी शक-शुबह , बिना किसी सोच -विचार के स्वयं को उसे समर्पित कर देता है ! क्योंकि सोचने समझने की शक्ति तो उलझनों ने पहले ही हड़प कर ली होती है !
यह तन्द्रा तब तक नहीं टूटती , जब तक उसे कोई बड़ा धक्का नहीं लगता !और जब तन्द्रा टूटती है, तो सबकी एक साथ टूटती है , जैसे गहरी नींद में सोते हुए एक व्यक्ति अचानक से जाग जाये , और उसके हिलने-डुलने से बाकी भी जाग जाएँ !
कहा जाता है की धर्म की उत्पत्ति भी इसी प्रकार हुई थी, जब लोगों को अपने दुःख-दर्द भूलकर किसी ऐसी ओर ध्यान लगाने की जरूरत महसूस हुई, जो उसके मन-मस्तिष्क को अस्थायी राहत और सुकून प्रदान करे ! मार्क्स ने तो इसकी स्पष्ट व्याख्या करते हुए कहा था कि धर्म समाज के शक्तिशाली और धनाढ्य वर्ग द्वारा बनाया गया वह सम्मोहन है , जो गरीब और कमजोर वर्ग के लिए बनाया गया है , ताकि उनका ध्यान अपने साथ हो रहे अन्याय और पीड़ा से हटकर कहीं और केन्द्रित हो जाये , और वे इन दुखों का मूल कारण अपने इस जन्म में अथवा पूर्व जन्म में किये गये बुरे कार्यों को मानें ! ना कि इसके लिए उच्च वर्ग को दोषी ठहराएँ !
आज के युग में आधुनिक बाबा ये सेवाएँ बखूबी प्रदान कर रहे हैं , मोटी फीस के साथ ! यदि यही वर्ग, जिसे सचमुच में क्षणिक शांति और आन्तरिक सुखों की तलाश है , अपनी लक्ष्य -प्राप्ति के दूसरे रास्ते खोज निकाले, तो इन तथाकथित बाबाओं की आलीशान दुकानें बंद होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी ! आए दिन देश के अलग-अलग भागों से ऐसी खबरें आती ही रहती हैं , जहाँ बाबाओं के जीते-जी या उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् इनके खजाने में अकूत सम्पत्ति पाई जाती है , जिसके उत्तराधिकार के विषय में कई दिनों तक अख़बारों में सुर्खियाँ रहती हैं ! मजे की बात यह , कि इस अकूत सम्पत्ति का बाद में होता क्या है , यह किसीको नही मालूम !
पर जिनकी मेहरबानी से यह सम्पत्ति बनी है , वे इसे यहाँ व्यर्थ करने की बजाय यदि यही गाढ़ी कमाई किसी जरुरतमन्द पर, या किसी समाजोपयोगी कार्य में लगायें , तो बात बने ! रही मन मस्तिष्क के सुकून की बात, तो इसके और बहुत से उपाय हैं , जैसे-योगाभ्यास, संगीत, मेडिटेशन आदि ! देखा जाये तो बाबा लोग भी यही कराते हैं , शांति प्रदान करने के नाम पर ! फिर उनके पास जाकर दिग्भ्रमित होने से बेहतर वे खुद ही क्यों नहीं कर सकते ये सब उपाय ? बता सकते हैं क्या ???