दर्द जब हद से गुज़र जाये
तो क्या कीजे !!
दवा भी कोई काम न आए
तो क्या कीजे !!
दर्द में निकला किया करती हैं आहें
आहें भी सिसक के थक जाएँ
तो क्या कीजे !!
सुनते थे दुआओं का असर
हम दवा के बाद
दुआएं भी अनसुना कर जाएँ
तो क्या कीजे !!
हर दर्द होगा आखरी
ये सोच कर सहा
आखरी की हद नज़र न आए
तो क्या कीजे !!
लगता है ज़हर ही है
मेरे ग़म की अब दवा
वो भी न पी पाए मुझे
तो क्या कीजे !!
थक चुके हैं इतना
कि रोने का दम नहीं
पर ढीठ आंसू तब भी आयें
तो क्या कीजे !!
बेखबर बैठे हैं
हरकतों से वो अपनी
जान के आईना छुपायें
तो क्या कीजे !!
तो क्या कीजे !!
:-(((((((((((((((((
ReplyDeleteहर दर्द होगा आखरी
ReplyDeleteये सोच कर सहा
आखरी की हद नज़र न आए
तो क्या कीजे !!
कभी कभी मन में ऐसे भाव भी आते हैं...कुशलता से कविता में बाँधा है उन मनोभावों को
बहुत-बहुत शुक्रिया रश्मि जी !!!
Delete