अतीत के पंछी
उड़-उड़कर आते हैं
यादों की बालकनी में !
पर जब भी बढाऊँ हाथ
उन्हें छूने, पकड़ने को
फुर्र से उड़ जाते हैं
उसी अतीत के नभ में !
अहसास मुझे दिलाते
कि वे कितने उन्मुक्त हैं
मेरी पकड़ से !
पर मैं ?
मैं तो उन्मुक्त न हो पाई
अतीत की बेड़ियों से
जो अब भी हैं डाले
बंधन मेरे पाँव में
कुछ कदम चलते ही
खिंच जाती हूँ पीछे
या
आगे बढने की चाह में
गिर जाती हूँ
पर
पंछी नहीं बन पाती हूँ !!!
अतीत हमेशा साथ चलता है .
ReplyDeleteसुंदर रचना !
shukriya :)))
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