" धरा और मानव "
हे धरा, तू ये बता
कब तक पियेगी तू हला ?
तू नारी है, तू मात्री है,
तू धरणी है , तू वत्सला !
करता वही शोषण तेरा ,
करता वही दोहन तेरा ,
पोषित हुआ है जो युगों से
सीने पे तेरे हल चला !
कब तक पियेगी तू हला ?
कसमसाती, चोट खाती
अन्तः में ही कुलबुलाती
न कोई आया कि जिसने
घाव पर मरहम मला !
कब तक पियेगी तू हला ?
तू सहेजे प्रकृति का
सौंदर्य अपने वक्ष पर
ममत्व और करुणा सदा ही
रहे हैं तेरे अक्ष पर
जिसको तूने दी शरण है ,
उसने ही तुझको छला !
कब तक पियेगी तू हला ?
तू मूक है , तू मौन है
तेरे लिए सब गौण है
पीड़ाएँ तुझको जब मिलीं ,
तब भी किया तूने भला !
कब तक पियेगी तू हला ?
तू भास्कर की प्रेयसी
तू शस्य- श्यामल देह सी
स्वार्थ मद के अंधों ने
यौवन है तेरा दिया जला !
कब तक पियेगी तू हला ?
तू जननी भी है, भगिनी भी
तू वेदना की हरणी भी
है गर्भ से तेरे हमें ही
अन्न का हर कण मिला !
कब तक पियेगी तू हला ?
माँ मुझे आशीष दे
उपकार तेरा तार दूँ
लौटा सकूं तुझको छवि
पहले सी स्निग्धा, निर्मला !!
न पीने दूंगी अब हला
क्योंकर पियेगी तू भला ?
हे धरा , तू ये बता
कब तक पियेगी तू हला !!!
कब तक पियेगी तू हला !!!
सही में, धरती माता का उपकार चुकाना मुश्किल है लेकिन हम कुछ तो जरुर कर सकते हैं !
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना , सुंदर भाव !
बहुत-बहुत आभार शिवनाथ जी !! :)))
ReplyDelete