'आँसू '
क्यों कोरों से ही डरकर
वापिस लौट जाते हैं
क्यों खुलकर नयनों से
बाहर नहीं आ पाते हैं !!
इतने मूक होकर के भी
सारी व्यथा सुनते हैं
कितने जख्मों को न जाने
कबसे खुद में समेटे हैं
एक सिरा खुलते ही जैसे
सारे बिखरे जाते हैं
बंधन में मैं रखना चाहूँ
ये खुलकर बहना चाहें
पर जब इनको मुक्ति दूँ
उस पल न बहना चाहें
शायद कोई भय है इनको
या प्रीत है मेरे नेहों से
बिन बरसे ही सघन हो रहे
नीर भरे कुछ मेहों से !
नीर भरे कुछ मेहों से !
जो भी हो, मुझको लेकिन
अपना फर्ज़ निभाना है
इनको प्रेम-प्यार से अपने
दिल में पालते जाना है
नादाँ , चंचल समझ न पाते
किस से कितना बतियाना है
जब तक ये परिपक्व न होंगे
तब तक यहीं बसाना है !!
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