Sunday, June 17, 2012

विरह की पीड़

 विरह की पीड़ जो दी तुमने 
उसको व्यर्थ न जाने दूंगी 
इस अग्नि से उपजे शब्दों को
मालाओं में मैं गूंथुंगी........
बीते क्षण हैं तैर रहे
चलचित्र की मानिंद
मेरे मन के सूने से मानसपटल पर
पढ़ती हूँ संदेश तुम्हारे वही पुराने
नित-नवीन भावों, अर्थों को बदल-बदल कर
तुमसे जितने भी मेरे सम्वाद हुए
उनकी गूँज कहीं मन में है, उन्हें सुनूंगी
विरह से उपजे शब्दों को कविता में गूथुंगी !!
वह सहमति -असहमति, तकरार, विवाद
वह नोंक-झोंक, वह झूठा गुस्सा, फिर अनुराग
फुरसत के पल रात-रात भर साथ जागना
अपनी खुशियाँ, अपने आंसू तुमसे बांटना
क्यों लगता है वह सब कभी भी न भूलूंगी ?
विरह से उपजे शब्दों को कविता में गूंथुंगी !!
यही शेष था-विरह का अनुभव करना
बिना तुम्हारे कुछ दिन जीवन-यापन करना
बांधकर खुद को देखना अपनी हदें
सृष्टि के नियमों का पालन करना
अब देख रही हूँ क्या निष्कर्ष रहा इनका
था कबसे मन में कभी तो ये प्रयोग करूंगी !!
विरह की पीड़ जो दी तुमने
उसको न मैं व्यर्थ करूंगी !!!!


  

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