Friday, July 27, 2012

" टूटा फूल "


             

          आज सुबह जब निकली घर से 
          बागीचे से रही गुज़र
          एक नन्हीं आवाज़ से चौंकी 
          था बच्चे के रोने का स्वर !
          इधर-उधर जब ढूँढा मैने 
          प्यारे से एक फूल को पाया 
          लेकिन महका, खिला नहीं था 
          वह  था टूटा, कुम्हलाया !
          प्यार से मैने उसे उठाया ,
         "क्यों रोते हो नन्हें सुमन ?
         बोलो तुम्हे है किसका डर ?"
         सहम, सिमट कर बोला मुझसे 
         "मुझे लगा दो डाली पर !
          मैं भी उन फूलों की तरह 
          डाली पर खिलना चाहता हूँ ,
          पंखुड़ी एक टूटी, तो क्या 
          सबसे मिलना चाहता हूँ !
         कोई झोंका  हवा का आया 
         और पंखुड़ी तोड़ गया 
         पर मैं तो अब भी फूल ही हूँ 
         इसमें मेरा दोष है क्या ?"
         उसकी बातों का मर्म मुझे 
         अंदर तक झकझोर गया 
        अनचाहे ही ध्यान मेरा 
         ऐसे बच्चों की ओर गया, 
        जिन्हें समय ने वंचित रखा ,
         पंखुड़ी रुपी अंगों से 
         और साथ ही वंचित रखा 
        सपनों के सतरंगों  से !
        क्यों नहीं भला ये जुड़ सकते हैं 
        फूल ये अपनी डाली से ?
        क्यों बिछड़ना है जरूरी 
        इनको अपने माली से ?
        हम उनके माली बन जाएँ 
        और ये संकल्प लें 
        सब बच्चों के संग ही 
       इनको भी हम शिक्षा दें !
       कोई कमी न आड़े आए
       कभी भी इनकी प्रगति में 
       वक्त पड़े तो एक-दूजे के 
       आँख और कान ये बनें !
       इनमे भी वो जोश है 
       कुछ कर-गुज़र ये जायेंगे 
       ये हैं तारे इस ज़मीन के 
       रौशनी फैलायेंगे !!!

         

4 comments:

  1. हमसे जो बने वो जरुर करना चाहिए ऐसे बच्चों के लिए ..
    बहुत सुंदर ढंग से संबोधित किया है आपने ...
    आपका लेखन वाकई अच्छा है !

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  2. धन्यवाद शिवनाथ जी , हौसला -अफज़ाई के लिए :))

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