Wednesday, June 19, 2013

उत्तराखंड विपदा


तारणहार ही डूब रहे 
कैसी प्रलय है आयी  !
देखके तांडव प्रकृति का 
मौत भी है थर्रायी !

चहुँदिस हाहाकार मचा है 
चीखें हैं और रूदन 
पर्वत,पानी एक हो गये 
हेतु मनुज के मर्दन !
भक्ति में रमे भक्तों पर भी 
विधि को दया न आयी !!
देखके तांडव प्रकृति का 
मौत भी है थर्रायी !

ऐसे में भी नरपिशाच हैं 
चाल न अपनी छोड़ें 
चले यदि वश, शवों पे भी 
दौड़ाएं सत्ता के घोड़े !
जाने किस माटी से विधना ने 
इनकी खाल बनायी !!
देखके तांडव प्रकृति का 
मौत भी है थर्रायी !

बहुत हुआ विध्वंस 
हे मालिक, अब तो रोक लगा ले 
अपने भीतर सोयी करुणा 
को झकझोर जगा ले 
माँ बच्चों की, बच्चे माँ की 
देते तुझे दुहाई !!
देखके तांडव प्रकृति का 
मौत भी है थर्रायी !

Monday, June 17, 2013

'कैकयी' (कहानी )

                                                         'कैकयी'  (कहानी )

"कैकयी ! हाँ, कैकयी हो तुम, जिसकी वजह से हमारा इकलौता बेटा हमें छोड़कर चला गया ! अरे, कैकयी तो फिर भी सौतेली माँ थी, तुम तो सगी हो ! क्यों किया अपनी ही औलाद के साथ ऐसा ? "

रमेश चन्द्र के कहे हुए शब्द मालती देवी के दिमाग में हथौड़े सी चोट कर रहे थे ! समझ पाना मुश्किल था, कि इस समय उनके मन में दुःख अधिक था , या क्रोध  ! मिले -जुले भाव चेहरे पर थे , माथे पर शिकनें और आँखों में आँसू ! उन्हें खरी -खोटी सुनाकर रमेश तो तेज़ी से घर से बाहर निकल गये थे , पर वह निढाल , ढहती मीनार सी डायनिंग टेबल का सहारा लेकर कुर्सी पर बैठ गयीं थीं  ! एक -एक शब्द की अनुगूंज अपने मन में बार -बार सुनती हुई , उन्हें तौलती हुई ! मानो , उन्हें  स्वयं को प्रताड़ित करने में आनंद आ रहा था ! शायद स्वयं पर तरस खाना चाहती थी , पर आ नहीं रहा था ! उन्हें थोड़ा  आश्चर्य भी हुआ , कि  ' मुझे खुद पर तरस क्यों नहीं आ रहा ? इकलौता बेटा अपनी पत्नी को लेकर अलग हो गया , कभी वापिस न आने की बात कहकर ! बेटी ने भी इस बात से नाराज़ होकर बात करना बंद कर दिया ! और अब पति ! मेरा जीवनसाथी , जीवन की ढलती सांझ में मेरा हमसफ़र ! वह भी आज इतने कटु शब्द सुना गया ! मैं बिलकुल अकेली पड़ गयी ! कोई मुझे सुनने , समझने वाला नहीं ! फिर भी मुझे अपनी इस हालत पर दया क्यों नहीं आ रही ? शायद इसलिए , कि मेरा अंतर्मन जानता है कि मैं इस दया के योग्य नहीं हूँ ! कुछ भी अनजाने में नहीं हुआ , सब कुछ जानते -बूझते ही कर रही थी मैं ! पर उसकी यह परिणिति नहीं सोची थी ! मुझे तो बस आनंद आता था बहू पर रुआब जमाने में , उसे ताने मारने में , व्यंग्य बाणों और कुटिल मुस्कान से आहत करने में ! मैं चाहती थी , वह मुझे पलटकर जवाब दे , मेरी अवज्ञा करे , मेरी ख़ुशी की अवहेलना करे , ताकि मेरे बेटे की नज़रों में गिर जाये ! पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ! बल्कि मैं ही सबकी नज़रों में गिर गयी ! ' वह घटनाओं का पुनरावलोकन करने लगीं ! पहले दिन से , जब नई नवेली बहू ऋचा का गृहप्रवेश हुआ था ...................



नई-नवेली दुल्हन ऋचा के गृहप्रवेश के कुछ घंटों बाद ही सभी मेहमान एक-एक कर अपने घर जाने लगे थे ! बेटा समर थका हुआ तो था ही , पर उसके चेहरे की चमक साफ बता रही थी कि वह विवाह में हुए लेन -देन व दोनों पक्षों के शिकवे -शिकायतों को भूलकर नई ज़िंदगी  का स्वागत करने के मूड में था ! बेटी पूर्वी भी इकलौती भाभी के रूप में भाई के तपते जीवन में वर्षों बाद आयी ठंडक की फुहार से प्रसन्न थी ! पति रमेश चन्द्र हमेशा की तरह तटस्थ थे - न बहुत प्रसन्न , न कोई शिकवा -शिकायत ! बदलाव यदि किसी के जीवन में आने वाला था, तो वह थीं  -मालती देवी ! अपने लाडले पुत्र समर के प्यार-दुलार की इकलौती वारिस , जिसे समर लगभग पूजता था ! उसने अपनी माँ के अभावपूर्ण और विषम वैवाहिक जीवन के बहुत किस्से देखे और सुने थे , जिससे वह अपनी माँ के त्याग और तपस्यापूर्ण जीवन के आगे नतमस्तक हो गया था , और इसीलिए उन्हें  प्रसन्न रखने की हर सम्भव कोशिश करता था ! शायद इसीलिए ऋचा के घर में पहला कदम रखते ही उसके साथ एक और अदृश्य कदम आया था 'असुरक्षा' का ! उसके हर बढ़ते कदम के साथ मालती देवी के मन में घर करती गयी असुरक्षा,  ! अपने मज़बूत अस्तित्व के नींव के हिलने की , उनके  बेटे के जीवन में एक और स्त्री के आने की , उनके बेटे के बँट जाने की , घर के हर निर्णय में एक और भागीदार के आने की ! ऋचा उन्हें बहू  की बजाय प्रतिद्वंदी प्रतीत होने लगी , जिसे हराने के लिए वह हर समय मोर्चा बाँधे तैयार रहतीं  ! सभी हथियारों का प्रयोग करतीं , पर मात खाने को तैयार न थीं  ! उन्हें  ऋचा की कद -काठी , व्यवहार , पाक -कला , खर्चीलापन , सभी में दोष दीखने लगा ! यह वही ऋचा थी , जिसे समर के लिए देखते समय मालती देवी  बलिहारी हुई जा रहीं थीं  और समर के मन से सभी संशयों को दूर कर उन्होंने ऋचा की प्रशंसा के पुल बाँध दिए थे - ' अच्छी खासी सुंदर है, एम बी ए किया हुआ है , घरेलू भी है, जैसी तू चाहता था, उतनी मॉडर्न भी है , परिवार भी पढ़ा लिखा है , और क्या चाहिए तुझे ? अब सारे गुण तो किसी में भी नहीं मिल सकते !'   यहाँ तक कि उसे एक बार दोबारा ऋचा से मिलने देने की इच्छा इसी शर्त पर मानी थी , कि वह विवाह के विषय में अपना इरादा नहीं बदलेगा ! आज वही बहू उन्हीं मालती देवी  को कमियों और दोषों का पुलंदा नज़र आती थी !

उधर सास के चेहरे पर मुस्कान देखने और उनके मुख से प्रशंसा के दो बोल सुनने के लिए ऋचा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी ! समर जब भी घूमने जाने की बात करता , ऋचा हमेशा कहती - "मम्मी पापा से भी पूछ लो ! उन्हें भी ले चलेंगे !" समर ऋचा के लिए कुछ खरीदना चाहता , तो वह पहले 'मम्मी जी' के लिए लेती , फिर अपने लिए ! बहुत स्वाभाविक था कि आज के युग में ऐसी पत्नी पाकर समर खुद को धन्य समझता था और माँ के आगे उसकी तारीफों के पुल भी बाँधता था !  किन्तु इन बातों से मालती देवी ऋचा के प्रति सहृदय होने की बजाय और भी कर्कशा व कटु होती चलीं गयीं  ! उनका यह मानना था कि पुत्र की प्रशंसा पर केवल उन्हीं का अधिकार है और बहू उसे अपने इशारों पर नचा रही है ! समर से कहतीं - ' तू तो अँधा हो चुका है पत्नी के प्यार में ! यह तेरे आगे नाटक करती है और तुझे दिखाई नहीं देता ? '  परिवार में सभी ने मालती देवी को समझाने की भरसक कोशिश की , पर स्थिति तब और बिगड़ती जाती , जब मालती देवी रो-रोकर सब पर उन्हें न समझने का, और बहू की 'चाल' का शिकार होने का आरोप लगातीं ! फलतः दुखी और असहाय समर का आक्रोश ऋचा पर निकलने लगा , और उनके बीच अकारण दरार पड़ने लगी ! आये दिन घर में कलह होने लगी ! यह एक विचित्र बात थी कि कलह के बाद मालती देवी के अलावा घर में सभी दुखी और हताश दीखते थे ; एक वही थीं , जिनके चेहरे पर संतोष होता था ! किन्तु विपरीत परिस्थितियों में , जब घर में सब संतुष्ट व प्रसन्नचित्त रहते थे , मालती देवी की शिकायतें पूरी होने में ही नहीं आती थीं ! समर पत्नी के सामने माँ की निंदा नहीं करना चाहता था , इसलिए सहनशक्ति समाप्त होने पर यदा -कदा अपनी मित्र समान बड़ी बहन पूर्वी से बात करके मन हल्का कर लेता था और रो भी लेता था ! तब वह भी अपने प्यारे भाई की बेचारगी पर पसीज उठती , और उसे ढांढस बंधाती ! फोन करके माँ को भी समझाने की कोशिश करती - 'माँ ! यह तुम ठीक नहीं कर रही हो ! भूल रही हो कि वह इस परिवार में नयी है , यदि हम उसे अभी प्यार से नहीं रखेंगे , तो वह हमें कभी अपना नहीं पायेगी , और न हमारी इज्ज़त नही कर पायेगी ! समर की तो सोचो ,वह कितना परेशान रहता है ! ' पर मालती देवी उसे ही चुप करा देतीं - ' मैं तो इन्हें कुछ नहीं कहती ! अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जी रहे हैं , और क्या चाहिए इस महारानी को ?' और यह कहकर फोन काट देतीं !


अब पानी सर से ऊपर होने लगा था ! सारा दिन ऑफिस की भाग-दौड़ के बाद घर के इस तनाव के कारण समर का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था ! कोई दिन शांति से नहीं व्यतीत होता था ! अति तो तब हो गयी , जब मालती देवी ने अपना पलड़ा भारी करने के लिए झूठ का सहारा लेने से भी नहीं हिचकिचायीं  ! वह पूर्वी को ऋचा का सबसे बड़ा समर्थक मानती थीं ! उन्होंने अपनी बेटी पूर्वी को 'अपनी ओर'  मिलाने और ऋचा को पूर्वी की नजरों में गिराने के लिए ऐसा झूठ बोला , जिसे सुनकर पूर्वी के दिल को बहुत ठेस पहुँची , और उसे ऋचा पर थोडा क्रोध भी आया , कि एक मैं हूँ, जो हर समय इसकी तरफदारी में लगी रहती हूँ, अपनी माँ के भी विरुद्ध जाकर, उन्हें नाराज़ करके ; और एक यह महारानी है कि मेरे ही खिलाफ़ बोलती है ! फिर भी वह अपने प्रिय भाई को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहती थी , इसलिए चुप रही ! पर कुछ दिन बाद जब समर का फोन आया , और उसने फिर से माँ की शिकायत करते हुए ऋचा की तरफदारी की , तो पूर्वी से चुप न रहा गया और उसने क्रोध में ऋचा की शिकायत करते हुए उसके बारे में बुरा -भला कह डाला ! यह सुनकर समर अवाक् रह गया , क्योंकि वह भली -भांति जानता था की उसकी बहन ही ऋचा की खुशियों का सबसे अधिक ध्यान रखती थी , और उसी के विषय में ऋचा ने अपशब्द कहे ! वह यह भी जानता था कि पूर्वी उस से कभी झूठ नहीं बोलेगी, बल्कि वह तो हर सम्भव कोशिश करती थी समर और ऋचा को तनाव मुक्त रखने की !

घर पहुँचते ही समर ने क्रुद्ध स्वर में ऋचा को पुकारा ! ऋचा पानी का गिलास लेकर आई , समर ने गिलास फेंक कर धरती पर मारा ! ऋचा हतप्रभ रह गयी ! समर का यह रूप उसने पहली बार देखा था ! वह कड़कते स्वर में बोला - ' क्या कहा तुमने दीदी  के बारे में ? वह हमारे घर में दखल देती है ? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह झूठ बोलने की ?? अरे इतनी तो शर्म की होती, कि  इस घर में एक वही है , जो तुम्हे तुम्हारा अधिकार तुम्हें दिलाने के लिए अपनी माँ तक से लड़ जाती है ! और तुमने उसे भी नहीं बक्शा ??'  चिल्लाते हुए उसने ऋचा पर हाथ उठा दिया ! अगली सुबह पूर्वी के पास फोन आया ! बुरी तरह सुबकते हुए किसी तरह कंठ में फंसे शब्दों को निकालते हुए ऋचा बोल रही थी - 'दीदी , आपने ऐसा सोच भी कैसे लिया , कि मैं आपके खिलाफ़ कुछ बोल सकती हूँ ? मैं तो इस परिवार में आपको ही अपना मानकर सुख -दुःख बाँटती हूँ ! अपने मायके में भी आप ही का गुणगान करती नहीं थकती , आपकी हर बात को सर माथे पर रखती हूँ ! और आपने इतना बड़ा झूठ ......... क्यों दीदी ?" कहकर बुरी तरह फफकने लगी ऋचा ! पूर्वी को जैसे सांप सूंघ गया ! उसे समझते देर न लगी कि माँ ने उससे झूठ कहा था ! वह सोचने लगी .....उनकी असुरक्षा और ऋचा को नीचा दिखाने का उनका पागलपन इस हद तक बढ़ चुका है, कि जीवन भर अपने बच्चों को जिस सच्चाई का वह पाठ पढ़ाती रहीं , आज स्वयं ही उस पाठ को ताक पर रख दिया है , एक तुच्छ से प्रयोजन के कारण ! उसे ग्लानि भी हो रही थी बिना सोचे समझे माँ की बात का विश्वास करने पर ! पर कभी सोचा भी तो नहीं था का वह इतनी विवश हो जायेंगी , कि यह रास्ता भी अपनाने से पीछे नहीं हटेंगी ! खैर ! बात खुली और सबके सामने आयी ! सभी दुखी और हैरान -परेशान थे ! इस समस्या का हल निकाले नही निकल रहा था ! गुत्थी जितनी सुलझाते , उतनी और उलझती जाती थी ! ऐसे में समर को एक ही रास्ता दिखा , जिस पर वह कभी नहीं चलना चाहता था ! उसने घोषणा की - 'मैं ऋचा को लेकर अलग हो रहा हूँ ! और सहन नहीं होता मुझसे ! मैंने एक अच्छा पुत्र बनने की पूरी कोशिश की , और अपनी पत्नी को भी एक अच्छी बहू के सभी धर्म निभाते पाया, लेकिन फिर भी हम माँ को खुश रखने में असफल रहे हैं ! मुझे डॉ ने साफ साफ कह दिया है कि यह तनाव मेरे  लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकता है ! अतः अब मैं इस तनाव से दूर जाना चाहता हूँ और आपको भी तनावमुक्त रखना चाहता हूँ ! कोशिश रहेगी इस घर में वापिस कदम न रखूँ ! आपको कभी भविष्य में हमारे प्रेम का एहसास हो  और हमारे साथ ख़ुशी ख़ुशी रहने की इच्छा हो , तो आपका स्वागत है !'  और इसके ठीक तीसरे दिन समर और ऋचा माँ - पापा के पैर छूकर अपना सामान लेकर चले गये !..........................


मालती देवी वर्तमान में लौट आयीं ! उन्हें ध्यान आया, अब तक काफी आंसू बह चुके थे ! अपने कलेजे के टुकड़े को कौन अलग होता देख सकता है ? उसके द्वार उनके लिए खुले थे ! किन्तु उनका हठ और अभिमान अभी भी उन्हें वहाँ जाने से रोकता था ! ' क्या हुआ, अगर चला गया तो ? जिनके बच्चे विदेश चले जाते हैं , वे भी तो अकेले रहते ही हैं ! कोई मुझे कैकयी कहता है , तो कहता रहे ! किसी के कहने से हो थोड़ी जाऊँगी ! यह तो पुस्तकों में भी लिखा है, 'पूत कपूत हो सकता है , पर माता कभी कुमाता नहीं हो सकती ' ! मैं भी नहीं हूँ !'  मन में सोचकर स्वयं को दिलासा देने की कोशिश करने लगीं ! 


10/6/13