Saturday, August 3, 2013

ईमानदारी

शुक्र है ईमानदारी को

उतनी फफूंदी नहीं लगी


जितनी थी अपेक्षित


इस भ्रष्टाचार की


उमस में !


तो हम यह मान लें


कि सिद्धांतों व आदर्शों के


वातानुकूलित यंत्र


कारगर हैं अब भी ...


शायद रहें हमेशा !


सभी हाथ व्यस्त नहीं हैं


बेईमानी के पाँव पखारने में,


उन्हें जूतियाँ पहनाने में !


कुछ मशगूल हैं


उनकी राहों में


काँटे बोने में .....


उन हाथों को हमें


संरक्षित करना होगा


तभी 'हम ' 


संरक्षित रह पायेंगे ......


सम्बन्धों के हाशिये

अपेक्षित है सम्बन्धों का 
जीवन के केंद्र में होना 
पर प्राय: 
चले जाते हैं 
हाशिये पर वे 
सरक -सरक कर 
स्वार्थों, व्यस्तताओं और 
महत्वाकांक्षाओं की 
गाढ़ी तरलताओं की 
साज़िश का शिकार होकर ,
उनमे बह -बहकर !
और वहीं से चीख -चीखकर 
दुहाई माँगते हैं 
अपने प्राणों की !
सुन लिए जाने वाले 
बचा लिए जाते हैं 
कभी -कभार ,
हाशिये से खींच लाये जाते हैं 
परिधि के भीतर 
और अनसुने 
वहीं 
हाशिये का तट पकड़े 
मदद की गुहार लगाते 
अन्ततः 
छोड़ देते हैं हाथ 
तोड़ देते हैं दम !!

Wednesday, June 19, 2013

उत्तराखंड विपदा


तारणहार ही डूब रहे 
कैसी प्रलय है आयी  !
देखके तांडव प्रकृति का 
मौत भी है थर्रायी !

चहुँदिस हाहाकार मचा है 
चीखें हैं और रूदन 
पर्वत,पानी एक हो गये 
हेतु मनुज के मर्दन !
भक्ति में रमे भक्तों पर भी 
विधि को दया न आयी !!
देखके तांडव प्रकृति का 
मौत भी है थर्रायी !

ऐसे में भी नरपिशाच हैं 
चाल न अपनी छोड़ें 
चले यदि वश, शवों पे भी 
दौड़ाएं सत्ता के घोड़े !
जाने किस माटी से विधना ने 
इनकी खाल बनायी !!
देखके तांडव प्रकृति का 
मौत भी है थर्रायी !

बहुत हुआ विध्वंस 
हे मालिक, अब तो रोक लगा ले 
अपने भीतर सोयी करुणा 
को झकझोर जगा ले 
माँ बच्चों की, बच्चे माँ की 
देते तुझे दुहाई !!
देखके तांडव प्रकृति का 
मौत भी है थर्रायी !

Monday, June 17, 2013

'कैकयी' (कहानी )

                                                         'कैकयी'  (कहानी )

"कैकयी ! हाँ, कैकयी हो तुम, जिसकी वजह से हमारा इकलौता बेटा हमें छोड़कर चला गया ! अरे, कैकयी तो फिर भी सौतेली माँ थी, तुम तो सगी हो ! क्यों किया अपनी ही औलाद के साथ ऐसा ? "

रमेश चन्द्र के कहे हुए शब्द मालती देवी के दिमाग में हथौड़े सी चोट कर रहे थे ! समझ पाना मुश्किल था, कि इस समय उनके मन में दुःख अधिक था , या क्रोध  ! मिले -जुले भाव चेहरे पर थे , माथे पर शिकनें और आँखों में आँसू ! उन्हें खरी -खोटी सुनाकर रमेश तो तेज़ी से घर से बाहर निकल गये थे , पर वह निढाल , ढहती मीनार सी डायनिंग टेबल का सहारा लेकर कुर्सी पर बैठ गयीं थीं  ! एक -एक शब्द की अनुगूंज अपने मन में बार -बार सुनती हुई , उन्हें तौलती हुई ! मानो , उन्हें  स्वयं को प्रताड़ित करने में आनंद आ रहा था ! शायद स्वयं पर तरस खाना चाहती थी , पर आ नहीं रहा था ! उन्हें थोड़ा  आश्चर्य भी हुआ , कि  ' मुझे खुद पर तरस क्यों नहीं आ रहा ? इकलौता बेटा अपनी पत्नी को लेकर अलग हो गया , कभी वापिस न आने की बात कहकर ! बेटी ने भी इस बात से नाराज़ होकर बात करना बंद कर दिया ! और अब पति ! मेरा जीवनसाथी , जीवन की ढलती सांझ में मेरा हमसफ़र ! वह भी आज इतने कटु शब्द सुना गया ! मैं बिलकुल अकेली पड़ गयी ! कोई मुझे सुनने , समझने वाला नहीं ! फिर भी मुझे अपनी इस हालत पर दया क्यों नहीं आ रही ? शायद इसलिए , कि मेरा अंतर्मन जानता है कि मैं इस दया के योग्य नहीं हूँ ! कुछ भी अनजाने में नहीं हुआ , सब कुछ जानते -बूझते ही कर रही थी मैं ! पर उसकी यह परिणिति नहीं सोची थी ! मुझे तो बस आनंद आता था बहू पर रुआब जमाने में , उसे ताने मारने में , व्यंग्य बाणों और कुटिल मुस्कान से आहत करने में ! मैं चाहती थी , वह मुझे पलटकर जवाब दे , मेरी अवज्ञा करे , मेरी ख़ुशी की अवहेलना करे , ताकि मेरे बेटे की नज़रों में गिर जाये ! पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ! बल्कि मैं ही सबकी नज़रों में गिर गयी ! ' वह घटनाओं का पुनरावलोकन करने लगीं ! पहले दिन से , जब नई नवेली बहू ऋचा का गृहप्रवेश हुआ था ...................



नई-नवेली दुल्हन ऋचा के गृहप्रवेश के कुछ घंटों बाद ही सभी मेहमान एक-एक कर अपने घर जाने लगे थे ! बेटा समर थका हुआ तो था ही , पर उसके चेहरे की चमक साफ बता रही थी कि वह विवाह में हुए लेन -देन व दोनों पक्षों के शिकवे -शिकायतों को भूलकर नई ज़िंदगी  का स्वागत करने के मूड में था ! बेटी पूर्वी भी इकलौती भाभी के रूप में भाई के तपते जीवन में वर्षों बाद आयी ठंडक की फुहार से प्रसन्न थी ! पति रमेश चन्द्र हमेशा की तरह तटस्थ थे - न बहुत प्रसन्न , न कोई शिकवा -शिकायत ! बदलाव यदि किसी के जीवन में आने वाला था, तो वह थीं  -मालती देवी ! अपने लाडले पुत्र समर के प्यार-दुलार की इकलौती वारिस , जिसे समर लगभग पूजता था ! उसने अपनी माँ के अभावपूर्ण और विषम वैवाहिक जीवन के बहुत किस्से देखे और सुने थे , जिससे वह अपनी माँ के त्याग और तपस्यापूर्ण जीवन के आगे नतमस्तक हो गया था , और इसीलिए उन्हें  प्रसन्न रखने की हर सम्भव कोशिश करता था ! शायद इसीलिए ऋचा के घर में पहला कदम रखते ही उसके साथ एक और अदृश्य कदम आया था 'असुरक्षा' का ! उसके हर बढ़ते कदम के साथ मालती देवी के मन में घर करती गयी असुरक्षा,  ! अपने मज़बूत अस्तित्व के नींव के हिलने की , उनके  बेटे के जीवन में एक और स्त्री के आने की , उनके बेटे के बँट जाने की , घर के हर निर्णय में एक और भागीदार के आने की ! ऋचा उन्हें बहू  की बजाय प्रतिद्वंदी प्रतीत होने लगी , जिसे हराने के लिए वह हर समय मोर्चा बाँधे तैयार रहतीं  ! सभी हथियारों का प्रयोग करतीं , पर मात खाने को तैयार न थीं  ! उन्हें  ऋचा की कद -काठी , व्यवहार , पाक -कला , खर्चीलापन , सभी में दोष दीखने लगा ! यह वही ऋचा थी , जिसे समर के लिए देखते समय मालती देवी  बलिहारी हुई जा रहीं थीं  और समर के मन से सभी संशयों को दूर कर उन्होंने ऋचा की प्रशंसा के पुल बाँध दिए थे - ' अच्छी खासी सुंदर है, एम बी ए किया हुआ है , घरेलू भी है, जैसी तू चाहता था, उतनी मॉडर्न भी है , परिवार भी पढ़ा लिखा है , और क्या चाहिए तुझे ? अब सारे गुण तो किसी में भी नहीं मिल सकते !'   यहाँ तक कि उसे एक बार दोबारा ऋचा से मिलने देने की इच्छा इसी शर्त पर मानी थी , कि वह विवाह के विषय में अपना इरादा नहीं बदलेगा ! आज वही बहू उन्हीं मालती देवी  को कमियों और दोषों का पुलंदा नज़र आती थी !

उधर सास के चेहरे पर मुस्कान देखने और उनके मुख से प्रशंसा के दो बोल सुनने के लिए ऋचा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी ! समर जब भी घूमने जाने की बात करता , ऋचा हमेशा कहती - "मम्मी पापा से भी पूछ लो ! उन्हें भी ले चलेंगे !" समर ऋचा के लिए कुछ खरीदना चाहता , तो वह पहले 'मम्मी जी' के लिए लेती , फिर अपने लिए ! बहुत स्वाभाविक था कि आज के युग में ऐसी पत्नी पाकर समर खुद को धन्य समझता था और माँ के आगे उसकी तारीफों के पुल भी बाँधता था !  किन्तु इन बातों से मालती देवी ऋचा के प्रति सहृदय होने की बजाय और भी कर्कशा व कटु होती चलीं गयीं  ! उनका यह मानना था कि पुत्र की प्रशंसा पर केवल उन्हीं का अधिकार है और बहू उसे अपने इशारों पर नचा रही है ! समर से कहतीं - ' तू तो अँधा हो चुका है पत्नी के प्यार में ! यह तेरे आगे नाटक करती है और तुझे दिखाई नहीं देता ? '  परिवार में सभी ने मालती देवी को समझाने की भरसक कोशिश की , पर स्थिति तब और बिगड़ती जाती , जब मालती देवी रो-रोकर सब पर उन्हें न समझने का, और बहू की 'चाल' का शिकार होने का आरोप लगातीं ! फलतः दुखी और असहाय समर का आक्रोश ऋचा पर निकलने लगा , और उनके बीच अकारण दरार पड़ने लगी ! आये दिन घर में कलह होने लगी ! यह एक विचित्र बात थी कि कलह के बाद मालती देवी के अलावा घर में सभी दुखी और हताश दीखते थे ; एक वही थीं , जिनके चेहरे पर संतोष होता था ! किन्तु विपरीत परिस्थितियों में , जब घर में सब संतुष्ट व प्रसन्नचित्त रहते थे , मालती देवी की शिकायतें पूरी होने में ही नहीं आती थीं ! समर पत्नी के सामने माँ की निंदा नहीं करना चाहता था , इसलिए सहनशक्ति समाप्त होने पर यदा -कदा अपनी मित्र समान बड़ी बहन पूर्वी से बात करके मन हल्का कर लेता था और रो भी लेता था ! तब वह भी अपने प्यारे भाई की बेचारगी पर पसीज उठती , और उसे ढांढस बंधाती ! फोन करके माँ को भी समझाने की कोशिश करती - 'माँ ! यह तुम ठीक नहीं कर रही हो ! भूल रही हो कि वह इस परिवार में नयी है , यदि हम उसे अभी प्यार से नहीं रखेंगे , तो वह हमें कभी अपना नहीं पायेगी , और न हमारी इज्ज़त नही कर पायेगी ! समर की तो सोचो ,वह कितना परेशान रहता है ! ' पर मालती देवी उसे ही चुप करा देतीं - ' मैं तो इन्हें कुछ नहीं कहती ! अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जी रहे हैं , और क्या चाहिए इस महारानी को ?' और यह कहकर फोन काट देतीं !


अब पानी सर से ऊपर होने लगा था ! सारा दिन ऑफिस की भाग-दौड़ के बाद घर के इस तनाव के कारण समर का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था ! कोई दिन शांति से नहीं व्यतीत होता था ! अति तो तब हो गयी , जब मालती देवी ने अपना पलड़ा भारी करने के लिए झूठ का सहारा लेने से भी नहीं हिचकिचायीं  ! वह पूर्वी को ऋचा का सबसे बड़ा समर्थक मानती थीं ! उन्होंने अपनी बेटी पूर्वी को 'अपनी ओर'  मिलाने और ऋचा को पूर्वी की नजरों में गिराने के लिए ऐसा झूठ बोला , जिसे सुनकर पूर्वी के दिल को बहुत ठेस पहुँची , और उसे ऋचा पर थोडा क्रोध भी आया , कि एक मैं हूँ, जो हर समय इसकी तरफदारी में लगी रहती हूँ, अपनी माँ के भी विरुद्ध जाकर, उन्हें नाराज़ करके ; और एक यह महारानी है कि मेरे ही खिलाफ़ बोलती है ! फिर भी वह अपने प्रिय भाई को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहती थी , इसलिए चुप रही ! पर कुछ दिन बाद जब समर का फोन आया , और उसने फिर से माँ की शिकायत करते हुए ऋचा की तरफदारी की , तो पूर्वी से चुप न रहा गया और उसने क्रोध में ऋचा की शिकायत करते हुए उसके बारे में बुरा -भला कह डाला ! यह सुनकर समर अवाक् रह गया , क्योंकि वह भली -भांति जानता था की उसकी बहन ही ऋचा की खुशियों का सबसे अधिक ध्यान रखती थी , और उसी के विषय में ऋचा ने अपशब्द कहे ! वह यह भी जानता था कि पूर्वी उस से कभी झूठ नहीं बोलेगी, बल्कि वह तो हर सम्भव कोशिश करती थी समर और ऋचा को तनाव मुक्त रखने की !

घर पहुँचते ही समर ने क्रुद्ध स्वर में ऋचा को पुकारा ! ऋचा पानी का गिलास लेकर आई , समर ने गिलास फेंक कर धरती पर मारा ! ऋचा हतप्रभ रह गयी ! समर का यह रूप उसने पहली बार देखा था ! वह कड़कते स्वर में बोला - ' क्या कहा तुमने दीदी  के बारे में ? वह हमारे घर में दखल देती है ? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह झूठ बोलने की ?? अरे इतनी तो शर्म की होती, कि  इस घर में एक वही है , जो तुम्हे तुम्हारा अधिकार तुम्हें दिलाने के लिए अपनी माँ तक से लड़ जाती है ! और तुमने उसे भी नहीं बक्शा ??'  चिल्लाते हुए उसने ऋचा पर हाथ उठा दिया ! अगली सुबह पूर्वी के पास फोन आया ! बुरी तरह सुबकते हुए किसी तरह कंठ में फंसे शब्दों को निकालते हुए ऋचा बोल रही थी - 'दीदी , आपने ऐसा सोच भी कैसे लिया , कि मैं आपके खिलाफ़ कुछ बोल सकती हूँ ? मैं तो इस परिवार में आपको ही अपना मानकर सुख -दुःख बाँटती हूँ ! अपने मायके में भी आप ही का गुणगान करती नहीं थकती , आपकी हर बात को सर माथे पर रखती हूँ ! और आपने इतना बड़ा झूठ ......... क्यों दीदी ?" कहकर बुरी तरह फफकने लगी ऋचा ! पूर्वी को जैसे सांप सूंघ गया ! उसे समझते देर न लगी कि माँ ने उससे झूठ कहा था ! वह सोचने लगी .....उनकी असुरक्षा और ऋचा को नीचा दिखाने का उनका पागलपन इस हद तक बढ़ चुका है, कि जीवन भर अपने बच्चों को जिस सच्चाई का वह पाठ पढ़ाती रहीं , आज स्वयं ही उस पाठ को ताक पर रख दिया है , एक तुच्छ से प्रयोजन के कारण ! उसे ग्लानि भी हो रही थी बिना सोचे समझे माँ की बात का विश्वास करने पर ! पर कभी सोचा भी तो नहीं था का वह इतनी विवश हो जायेंगी , कि यह रास्ता भी अपनाने से पीछे नहीं हटेंगी ! खैर ! बात खुली और सबके सामने आयी ! सभी दुखी और हैरान -परेशान थे ! इस समस्या का हल निकाले नही निकल रहा था ! गुत्थी जितनी सुलझाते , उतनी और उलझती जाती थी ! ऐसे में समर को एक ही रास्ता दिखा , जिस पर वह कभी नहीं चलना चाहता था ! उसने घोषणा की - 'मैं ऋचा को लेकर अलग हो रहा हूँ ! और सहन नहीं होता मुझसे ! मैंने एक अच्छा पुत्र बनने की पूरी कोशिश की , और अपनी पत्नी को भी एक अच्छी बहू के सभी धर्म निभाते पाया, लेकिन फिर भी हम माँ को खुश रखने में असफल रहे हैं ! मुझे डॉ ने साफ साफ कह दिया है कि यह तनाव मेरे  लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकता है ! अतः अब मैं इस तनाव से दूर जाना चाहता हूँ और आपको भी तनावमुक्त रखना चाहता हूँ ! कोशिश रहेगी इस घर में वापिस कदम न रखूँ ! आपको कभी भविष्य में हमारे प्रेम का एहसास हो  और हमारे साथ ख़ुशी ख़ुशी रहने की इच्छा हो , तो आपका स्वागत है !'  और इसके ठीक तीसरे दिन समर और ऋचा माँ - पापा के पैर छूकर अपना सामान लेकर चले गये !..........................


मालती देवी वर्तमान में लौट आयीं ! उन्हें ध्यान आया, अब तक काफी आंसू बह चुके थे ! अपने कलेजे के टुकड़े को कौन अलग होता देख सकता है ? उसके द्वार उनके लिए खुले थे ! किन्तु उनका हठ और अभिमान अभी भी उन्हें वहाँ जाने से रोकता था ! ' क्या हुआ, अगर चला गया तो ? जिनके बच्चे विदेश चले जाते हैं , वे भी तो अकेले रहते ही हैं ! कोई मुझे कैकयी कहता है , तो कहता रहे ! किसी के कहने से हो थोड़ी जाऊँगी ! यह तो पुस्तकों में भी लिखा है, 'पूत कपूत हो सकता है , पर माता कभी कुमाता नहीं हो सकती ' ! मैं भी नहीं हूँ !'  मन में सोचकर स्वयं को दिलासा देने की कोशिश करने लगीं ! 


10/6/13

Wednesday, March 27, 2013

मुट्ठी भर जिंदगी




    रोज़ तलाश शुरू होती है
    मुट्ठी भर जिंदगी की.......
    ढूंढती उसे हर शय में
    बालकनी की धूप में
    बच्चों की मुस्कान में
    किसी अपने की बातों में
    कुकर की सीटी में
    किसी टीवी सीरियल में
    मार्केट में दुकान पर
    टंगे किसी आकर्षक परिधान में
    चटपटे गोलगप्पों में
    पर थोड़ी-थोड़ी जोड़ कर भी
    उतनी नही है हो पाती
    कि एक दिन का
    जीना निकल पाए !
    जितनी जोड़ पाती हूँ
    उसमे में भी रिस-रिस कर
    बहुत अल्प रह जाती है
    और मैं रह जाती हूँ
    रोज़ ही घाटे में !!



   

  

'बलात्कार'




  'बलात्कार' 

  आओ दरिन्दों
  मुझे लूटो, खसोटो, नोचो !
  गौर से देखो
  एक नारी हूँ मैं
  ब्रहा द्वारा तैयार
  तुम्हारे ऐशो आराम का सामान,
  तुम्हारी ऐय्याशी का सामान,
  तुम्हारी पाश्विक, घिनौनी औऱ नरपैशाचिक
  जरूरतों को पूरा करने का सामान !
  चिथडे चिथडे कर दो
  वो झूठी अस्मिता
  जो बचपन से मैं
  साथ लेकर जी रही थी !
  दिल दहला देने वाली मर्दानगी दिखा दो
  सारी दुनिया को !
  अरे, मर्द हो !
  कोई मजाक है क्या ?
  ऐसी दुर्गति करदो
  मेरी आत्मा और शरीर की,
  कि पूरी औरत जमात
  सात पीढियों तक काँपे,
  औरत होने के लिये !!
  डरो मत !!
  अधिक कुछ नहीं होगा !
  तुम्हारी तलाश, और कुछ
  सजा के बाद सब ठीक हो जायेगा तुम्हारा,
  धीरे -धीरे !
  मैं शायद न बचूँ
  अपने जऩ्मदाताओं की
  जीवन पर्यन्त यातना देखने,
  और मुझ पर चल रही
  टी वी चैनलों की प्राईम टाईम बहस देखने ....
  और वे तमाम धरने और प्रदर्शन देखने,
  जो इस तुम्हारे क्षणिक सुख से उपजे !!
  पर वो सब बाद की बातें हैं !
  शायद इतनी आबादी में
  सब भूल भी जायें !
  पर तुम तो अपना कर्म करो,
  जिसके लिये तुम्हे
  देवतुल्य पुरुष जीवन मिला है!!
  मर्द बनो !! निडर होकर !!!

  dec.2012

मीरा

राधा बनने के स्वप्न दिखाए
मीरा भी न रहने  दिया
मेरे प्रेम-प्रगाढ़ का तुमने
प्रियतम कैसा फल ये दिया !
तुम तो कृष्ण थे, कृष्ण रहे
लीलाओं में मग्न रहे
किन्तु उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
पूरा जीवन कर डाला
भस्म प्रेम की ज्वाला में
निः संकोच हो किया पान
छब देख तुम्हारी हाला में
तुम कठोर तब भी न पिघले
निष्ठुर थे, निष्ठुर ही रहे !
किन्तु उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
देते थे उपदेश जगत को
न करना फल की अभिलाषा
मैं मूढमति तब समझ न पाई
गूढ़ तुम्हारी यह भाषा
प्रेम-तपस्या विफल हुई
जल-प्रपात नयनों से बहे !
बोलो उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
यह जन्म गँवा चुकी तो क्या
सौ जन्म पुनः फिर ले लूँगी
प्रेम-मुरलिया अधर लगाकर
वृन्दावन में खेलूंगी !
तभी भरेंगे घाव सभी
जो तुम्हें पाने को मैने सहे
और कह पाऊँगी गर्व से फिर
तुम मेरे थे, मेरे ही रहे !!

17/9/12




आक्रोश

इक नपुंसक हुक्मरानों की है 
टोली डर रही !
एकतरफा क़ायदे, इंसानियत है मर रही !!
मख़मली दीवारों के हैं
कान बहरे हो चुके
कौन सी फिर गुफ़्तगू
ये ज़िंदा लाशें कर रहीं ??
ज़ुल्मो सितम की सब हदें
हैं बेकसूरों के लिए
वहशियाना भेडियों की
नस्ल तांडव कर रही !!
चीत्कारें सुन न पाते,
दुर्ग में बैठे हैं जो,
रातदिन दौलत खनकती
कान में बस भर रही !!
तुम लुटेरे हिंद की अस्मत् के हो,
क्या समझोगे ?
मासूम सी इक जान पर
लुटने से क्या गुज़र रही !!
आज जब आवाम के हो
कठघरे में ज़ालिमों,
क्यूँ ज़ुबाँ कटी तुम्हारी,
वादों से मुकर रही ??
होश में आ तानाशाही
वक़्त अब वो आ गया,
अर्थी तेरी उठने में
कोई घडी गुज़र रही !!! 


23/12/12  

 

Wednesday, March 13, 2013

स्पंदन

एक स्पंदन 
जो तुम्हारी निगाह से, 
तुम्हारे तसव्वुर से 
होता है मुझ में ,
झंकृत कर जाता है 
भीतर तक गहरे कहीं
मेरी शिराओं को
धमनियों को
रोमरोम को .........



Monday, March 11, 2013

अग्नि परीक्षा

इतने युग, इतने वर्षों से 
पावक तपीं इतनी सीतायें 
देने को विविध परीक्षाएँ ,
अपने चरित्र की, दृढ़ता की 
कि गंध भी उनकी देह की अब 
अग्नियों को है लगती परिचित 
सो प्रेम से वह अपना लेती !
जिस दिवस परीक्षा लेगा काल 
शौर्यंवान औ धैर्यवान 
औ निष्कलंक किसी राम की,
अग्नि भी न पहचानेगी 
उस नव विचित्र आगन्तुक को,
न करेगी उसका आलिंगन ,
न होगा उसका दहन  !
तब भूल यह तुम न करना ,
उसे मानने की पावन ,
क्यूँकि अग्नि तो है निर्मल 
अपनाएगी केवल निश्छल 
पर तिरस्कार वह कर देगी ,
जिसमें पायेगी तनिक भी छल ,
जिसमें न होगा सत्य का बल !
और हो जायेगा वह असफल !!


Wednesday, March 6, 2013

वो प्यार था या कुछ और था

  "रोहित… अक्षय ....उज्ज्वल ....नव्या ....." ...........क्लास में अटेंडेंस लेते-लेते एकदम से नीमा ठिठक गयी ......एक नये चेहरे को देखकर ! क्लास में नये बच्चों का दाखिला होना और नये चेहरे दिखना  अप्रत्याशित न था, पर उस बच्ची नव्या के चेहरे पर ज़रूर कुछ अप्रत्याशित था ........ऐसा नहीं, जिसकी कल्पना  कभी नीमा ने न की हो, बल्कि उससे ठीक उलट था ! ऐसा , जिसकी सुखद कल्पना न जाने कितनी बार उसने की थी  ! कभी अकेले में, तो कभी समर के साथ !

            उसने जैसे-तैसे खुद को काबू में रखकर अटेंडेंस पूरी की और नव्या को अपने पास बुलाकर उसके पापा का नाम पूछा ! "मिस्टर समर सक्सेना !"
नीमा के दिल की धड़कनें और तेज़ हो गयीं ! उसका शक़ सही निकला था ! वही गोल चेहरा, वही बड़ी-बड़ी आँखें, और उन पर घनी पलकें , वही गहरे काले घुंघराले बाल ............जैसे समर टाइम मशीन में तीस साल पीछे चला गया हो !! उसकी ऐसी ही प्यारी सी निशानी के सपने देखे थे समर और नीमा ने , जब अपने भविष्य के सतरंगी सपने बुना  करते थे, कभी न पूरे होने वाले !! वही सपना आज  साकार होकर उसकी आँखों के सामने खड़ा था , पर उसका और समर का नहीं, बल्कि समर और पूजा का , एक परायी और अनजान औरत का, जिसे नीमा ख्यालों में भी एक पल के लिए बर्दाश्त नहीं कर सकती थी , और तड़प -तड़प उठती थी ऐसे सच के ख्याल से भी !
    
         स्कूल की छुट्टी के बाद घर आकर भी वह कहानी चलती रही, जो उसके मन-मस्तिष्क में नव्या से मिलने के बाद शुरू हो गयी थी ! ज़िन्दगी के वे पल , जो वह सात साल पहले क़ब्र में दफ़ना चुकी थी , खूब सारी मिट्टी  डालकर , ताकि अब कोई उस क़ब्र  में से खोदकर उन पलों के कंकाल न निकाल पाए  ! पर आज………।  आज तो वो सब दफ़न किये हुए पल अपनी मौत को झुठलाते हुए पूरे के पूरे जीवित ही निकल कर शिरक़त करने लगे थे उसके इर्दगिर्द ! कभी कोई पल उसे देखकर मुस्कुराता हुआ निकल जाता, तो कभी दूजा पल मुँह चिढ़ाता  हुआ  ;  कोई बेबस आँखों से उसे देख रहा था , तो कोई निगाहों में सवाल लिए उसकी आँखों से जवाब मांग रहा था ! वह चाहकर भी उनके घेरे से बाहर  नहीं निकल पा  रही थी , या शायद निकलना नहीं चाहती थी ! एक पुरानी एल्बम की तरह थे वे, जो दर्द और ख़ुशी एक साथ दे रहे थे ! आख़िरकार नीमा ने उन्हें तसल्ली से समय देने का निर्णय लिया , और बिलकुल पहले पल से मुख़ातिब हुई, जब उसकी और समर  की भाग्य रेखाएं जुड़ने की तैयारी में थीं ! वह सात साल पीछे चली गयी ..............................

 

Sunday, March 3, 2013

धूप-घड़ी


पलंग पर पड़े-पड़े
मैं देखती रही
कमरे की छत पर
चिपके
चौरस धूप के टुकड़े को
इंतज़ार करती
उसका आकार बदलने का
वो बदला
और सहसा मुझे
याद आया

जीवन का आकार बदलना
भाग्य की
धूप-घड़ी के
संग-संग !


खुशियों का सॉफ्टवेयर


ज़िदगी की वैबसाइट से जब भी
खुशियों का सॉफ्टवेयर
डाउनलोड करने की
कोशिश करती हूँ,
सर्वर जाने क्यूँ
स्लो हो जाता है !!
कई बार कोशिश
करके देखा ...
कभी पूरा लोड
नहीं हो पाता है,
सौ प्रतिशत होने से पहले ही
'इंस्टॉल न हो पाने ' का मैसेज
आ जाता है !!
तब जाकर ये ख्याल आता है,
कि सभी लोग लगे होंगे
इसे डाउनलोड करने में,
इसीलिए ये बिज़ी जाता है
और मेरी तो क्या,
किसी की भी ज़िदगी में
कभी पूरा इंस्टॉल
नहीं हो पाता है !
'करप्ट' साइट से करो,
तो निश्चित ही वायरस
आ जाता है,
सीधे तरीके से
खुशियाँ लोड करना
बड़ा इंतज़ार कराता है,
फिर भी नहीं हो पाता है .........!!

Saturday, March 2, 2013

धूप का दुपट्टा




धूप  हौले-हौले उतार रही है 
अपना पीला दुपट्टा 
और दिखने लगे हैं 
उसके श्यामल केश 
संध्या के रूप में !
हवा से हिलते पत्ते 
मानो आसमां की बालियाँ !
कुछ ही देर में 
श्यामल केश खुल जायेंगे पूरे 
और लेंगे रूप निशा का !
पूरी रात  अपने 
लम्बे काले केश फैलाये 
निशा देगी 
थपकियाँ धरती को .....
फिर सुबह इक दस्तक से 
सूरज की 
टूटेगी निद्रा धरती की !!

Sunday, January 6, 2013

तू है कहाँ ?

हे प्रभु, तू है कहाँ ?
क्या कहीं तू सो गया ?
सुन ले,जब तेरे जगत में 
पीड़ितों को न्याय होगा ,
अब तभी मंदिर में तेरे नाम का दीया जलेगा !!

आत्मा के चीथड़े
कर देने वाले वहशियों को,
उन दरिंदों को कुकर्मों का
यथोचित फल मिलेगा ,
अब तभी मंदिर में तेरे नाम का दीया जलेगा !!

अन्नदाता देश का जो,
सींचता भू रक्त से,
भूख से व्याकुल विवश हो
प्राण तजना छोड़ देगा ,
अब तभी मंदिर में तेरे नाम का दीया जलेगा !!

भ्रष्टाचारी,देशद्रोही
शक्तियों के वृक्ष का
नन्द वंश के सरीखा
ही समूल नाश होगा ,
अब तभी मंदिर में तेरे नाम का दीया जलेगा !!


अपनी शक्ति भूल, जो
नारी अहिल्या है बनी ,
उसमें जब दुर्गा की शक्ति
का नया संचार होगा ,
अब तभी मंदिर में तेरे नाम का दीया जलेगा !!

पाप और अधर्म की
गहरी जड़ें मिटाने को,
हर दिशा में गगनभेदी
शंख का जब नाद होगा,
अब तभी मंदिर में तेरे नाम का दीया जलेगा !!


01/01/2013



बलात्कार

आओ दरिन्दों
मुझे लूटो, खसोटो, नोचो !
गौर से देखो
एक नारी हूँ मैं
ब्रहा द्वारा तैयार
तुम्हारे ऐशो आराम का सामान,
तुम्हारी ऐय्याशी का सामान,
तुम्हारी पाश्विक, घिनौनी औऱ नरपैशाचिक
जरूरतों को पूरा करने का सामान !
चिथडे चिथडे कर दो
वो झूठी अस्मिता
जो बचपन से मैं
साथ लेकर जी रही थी !
दिल दहला देने वाली मर्दानगी दिखा दो
सारी दुनिया को !
अरे, मर्द हो !
कोई मजाक है क्या ?
ऐसी दुर्गति करदो
मेरी आत्मा और शरीर की,
कि पूरी औरत जमात
सात पीढियों तक काँपे,
औरत होने के लिये !!
डरो मत !!
अधिक कुछ नहीं होगा !
तुम्हारी तलाश, और कुछ
सजा के बाद सब ठीक हो जायेगा तुम्हारा,
धीरे -धीरे !
मैं शायद न बचूँ
अपने जऩ्मदाताओं की
जीवन पर्यन्त यातना देखने,
और मुझ पर चल रही
टी वी चैनलों की प्राईम टाईम बहस देखने ....
और वे तमाम धरने और प्रदर्शन देखने,
जो इस तुम्हारे क्षणिक सुख से उपजे !!
पर वो सब बाद की बातें हैं !
शायद इतनी आबादी में
सब भूल भी जायें !
पर तुम तो अपना कर्म करो,
जिसके लिये तुम्हे
देवतुल्य पुरुष जीवन मिला है!!
मर्द बनो !! निडर होकर !!!   

19/12/12