Wednesday, March 27, 2013

मुट्ठी भर जिंदगी




    रोज़ तलाश शुरू होती है
    मुट्ठी भर जिंदगी की.......
    ढूंढती उसे हर शय में
    बालकनी की धूप में
    बच्चों की मुस्कान में
    किसी अपने की बातों में
    कुकर की सीटी में
    किसी टीवी सीरियल में
    मार्केट में दुकान पर
    टंगे किसी आकर्षक परिधान में
    चटपटे गोलगप्पों में
    पर थोड़ी-थोड़ी जोड़ कर भी
    उतनी नही है हो पाती
    कि एक दिन का
    जीना निकल पाए !
    जितनी जोड़ पाती हूँ
    उसमे में भी रिस-रिस कर
    बहुत अल्प रह जाती है
    और मैं रह जाती हूँ
    रोज़ ही घाटे में !!



   

  

'बलात्कार'




  'बलात्कार' 

  आओ दरिन्दों
  मुझे लूटो, खसोटो, नोचो !
  गौर से देखो
  एक नारी हूँ मैं
  ब्रहा द्वारा तैयार
  तुम्हारे ऐशो आराम का सामान,
  तुम्हारी ऐय्याशी का सामान,
  तुम्हारी पाश्विक, घिनौनी औऱ नरपैशाचिक
  जरूरतों को पूरा करने का सामान !
  चिथडे चिथडे कर दो
  वो झूठी अस्मिता
  जो बचपन से मैं
  साथ लेकर जी रही थी !
  दिल दहला देने वाली मर्दानगी दिखा दो
  सारी दुनिया को !
  अरे, मर्द हो !
  कोई मजाक है क्या ?
  ऐसी दुर्गति करदो
  मेरी आत्मा और शरीर की,
  कि पूरी औरत जमात
  सात पीढियों तक काँपे,
  औरत होने के लिये !!
  डरो मत !!
  अधिक कुछ नहीं होगा !
  तुम्हारी तलाश, और कुछ
  सजा के बाद सब ठीक हो जायेगा तुम्हारा,
  धीरे -धीरे !
  मैं शायद न बचूँ
  अपने जऩ्मदाताओं की
  जीवन पर्यन्त यातना देखने,
  और मुझ पर चल रही
  टी वी चैनलों की प्राईम टाईम बहस देखने ....
  और वे तमाम धरने और प्रदर्शन देखने,
  जो इस तुम्हारे क्षणिक सुख से उपजे !!
  पर वो सब बाद की बातें हैं !
  शायद इतनी आबादी में
  सब भूल भी जायें !
  पर तुम तो अपना कर्म करो,
  जिसके लिये तुम्हे
  देवतुल्य पुरुष जीवन मिला है!!
  मर्द बनो !! निडर होकर !!!

  dec.2012

मीरा

राधा बनने के स्वप्न दिखाए
मीरा भी न रहने  दिया
मेरे प्रेम-प्रगाढ़ का तुमने
प्रियतम कैसा फल ये दिया !
तुम तो कृष्ण थे, कृष्ण रहे
लीलाओं में मग्न रहे
किन्तु उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
पूरा जीवन कर डाला
भस्म प्रेम की ज्वाला में
निः संकोच हो किया पान
छब देख तुम्हारी हाला में
तुम कठोर तब भी न पिघले
निष्ठुर थे, निष्ठुर ही रहे !
किन्तु उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
देते थे उपदेश जगत को
न करना फल की अभिलाषा
मैं मूढमति तब समझ न पाई
गूढ़ तुम्हारी यह भाषा
प्रेम-तपस्या विफल हुई
जल-प्रपात नयनों से बहे !
बोलो उन घावों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
यह जन्म गँवा चुकी तो क्या
सौ जन्म पुनः फिर ले लूँगी
प्रेम-मुरलिया अधर लगाकर
वृन्दावन में खेलूंगी !
तभी भरेंगे घाव सभी
जो तुम्हें पाने को मैने सहे
और कह पाऊँगी गर्व से फिर
तुम मेरे थे, मेरे ही रहे !!

17/9/12




आक्रोश

इक नपुंसक हुक्मरानों की है 
टोली डर रही !
एकतरफा क़ायदे, इंसानियत है मर रही !!
मख़मली दीवारों के हैं
कान बहरे हो चुके
कौन सी फिर गुफ़्तगू
ये ज़िंदा लाशें कर रहीं ??
ज़ुल्मो सितम की सब हदें
हैं बेकसूरों के लिए
वहशियाना भेडियों की
नस्ल तांडव कर रही !!
चीत्कारें सुन न पाते,
दुर्ग में बैठे हैं जो,
रातदिन दौलत खनकती
कान में बस भर रही !!
तुम लुटेरे हिंद की अस्मत् के हो,
क्या समझोगे ?
मासूम सी इक जान पर
लुटने से क्या गुज़र रही !!
आज जब आवाम के हो
कठघरे में ज़ालिमों,
क्यूँ ज़ुबाँ कटी तुम्हारी,
वादों से मुकर रही ??
होश में आ तानाशाही
वक़्त अब वो आ गया,
अर्थी तेरी उठने में
कोई घडी गुज़र रही !!! 


23/12/12  

 

Wednesday, March 13, 2013

स्पंदन

एक स्पंदन 
जो तुम्हारी निगाह से, 
तुम्हारे तसव्वुर से 
होता है मुझ में ,
झंकृत कर जाता है 
भीतर तक गहरे कहीं
मेरी शिराओं को
धमनियों को
रोमरोम को .........



Monday, March 11, 2013

अग्नि परीक्षा

इतने युग, इतने वर्षों से 
पावक तपीं इतनी सीतायें 
देने को विविध परीक्षाएँ ,
अपने चरित्र की, दृढ़ता की 
कि गंध भी उनकी देह की अब 
अग्नियों को है लगती परिचित 
सो प्रेम से वह अपना लेती !
जिस दिवस परीक्षा लेगा काल 
शौर्यंवान औ धैर्यवान 
औ निष्कलंक किसी राम की,
अग्नि भी न पहचानेगी 
उस नव विचित्र आगन्तुक को,
न करेगी उसका आलिंगन ,
न होगा उसका दहन  !
तब भूल यह तुम न करना ,
उसे मानने की पावन ,
क्यूँकि अग्नि तो है निर्मल 
अपनाएगी केवल निश्छल 
पर तिरस्कार वह कर देगी ,
जिसमें पायेगी तनिक भी छल ,
जिसमें न होगा सत्य का बल !
और हो जायेगा वह असफल !!


Wednesday, March 6, 2013

वो प्यार था या कुछ और था

  "रोहित… अक्षय ....उज्ज्वल ....नव्या ....." ...........क्लास में अटेंडेंस लेते-लेते एकदम से नीमा ठिठक गयी ......एक नये चेहरे को देखकर ! क्लास में नये बच्चों का दाखिला होना और नये चेहरे दिखना  अप्रत्याशित न था, पर उस बच्ची नव्या के चेहरे पर ज़रूर कुछ अप्रत्याशित था ........ऐसा नहीं, जिसकी कल्पना  कभी नीमा ने न की हो, बल्कि उससे ठीक उलट था ! ऐसा , जिसकी सुखद कल्पना न जाने कितनी बार उसने की थी  ! कभी अकेले में, तो कभी समर के साथ !

            उसने जैसे-तैसे खुद को काबू में रखकर अटेंडेंस पूरी की और नव्या को अपने पास बुलाकर उसके पापा का नाम पूछा ! "मिस्टर समर सक्सेना !"
नीमा के दिल की धड़कनें और तेज़ हो गयीं ! उसका शक़ सही निकला था ! वही गोल चेहरा, वही बड़ी-बड़ी आँखें, और उन पर घनी पलकें , वही गहरे काले घुंघराले बाल ............जैसे समर टाइम मशीन में तीस साल पीछे चला गया हो !! उसकी ऐसी ही प्यारी सी निशानी के सपने देखे थे समर और नीमा ने , जब अपने भविष्य के सतरंगी सपने बुना  करते थे, कभी न पूरे होने वाले !! वही सपना आज  साकार होकर उसकी आँखों के सामने खड़ा था , पर उसका और समर का नहीं, बल्कि समर और पूजा का , एक परायी और अनजान औरत का, जिसे नीमा ख्यालों में भी एक पल के लिए बर्दाश्त नहीं कर सकती थी , और तड़प -तड़प उठती थी ऐसे सच के ख्याल से भी !
    
         स्कूल की छुट्टी के बाद घर आकर भी वह कहानी चलती रही, जो उसके मन-मस्तिष्क में नव्या से मिलने के बाद शुरू हो गयी थी ! ज़िन्दगी के वे पल , जो वह सात साल पहले क़ब्र में दफ़ना चुकी थी , खूब सारी मिट्टी  डालकर , ताकि अब कोई उस क़ब्र  में से खोदकर उन पलों के कंकाल न निकाल पाए  ! पर आज………।  आज तो वो सब दफ़न किये हुए पल अपनी मौत को झुठलाते हुए पूरे के पूरे जीवित ही निकल कर शिरक़त करने लगे थे उसके इर्दगिर्द ! कभी कोई पल उसे देखकर मुस्कुराता हुआ निकल जाता, तो कभी दूजा पल मुँह चिढ़ाता  हुआ  ;  कोई बेबस आँखों से उसे देख रहा था , तो कोई निगाहों में सवाल लिए उसकी आँखों से जवाब मांग रहा था ! वह चाहकर भी उनके घेरे से बाहर  नहीं निकल पा  रही थी , या शायद निकलना नहीं चाहती थी ! एक पुरानी एल्बम की तरह थे वे, जो दर्द और ख़ुशी एक साथ दे रहे थे ! आख़िरकार नीमा ने उन्हें तसल्ली से समय देने का निर्णय लिया , और बिलकुल पहले पल से मुख़ातिब हुई, जब उसकी और समर  की भाग्य रेखाएं जुड़ने की तैयारी में थीं ! वह सात साल पीछे चली गयी ..............................

 

Sunday, March 3, 2013

धूप-घड़ी


पलंग पर पड़े-पड़े
मैं देखती रही
कमरे की छत पर
चिपके
चौरस धूप के टुकड़े को
इंतज़ार करती
उसका आकार बदलने का
वो बदला
और सहसा मुझे
याद आया

जीवन का आकार बदलना
भाग्य की
धूप-घड़ी के
संग-संग !


खुशियों का सॉफ्टवेयर


ज़िदगी की वैबसाइट से जब भी
खुशियों का सॉफ्टवेयर
डाउनलोड करने की
कोशिश करती हूँ,
सर्वर जाने क्यूँ
स्लो हो जाता है !!
कई बार कोशिश
करके देखा ...
कभी पूरा लोड
नहीं हो पाता है,
सौ प्रतिशत होने से पहले ही
'इंस्टॉल न हो पाने ' का मैसेज
आ जाता है !!
तब जाकर ये ख्याल आता है,
कि सभी लोग लगे होंगे
इसे डाउनलोड करने में,
इसीलिए ये बिज़ी जाता है
और मेरी तो क्या,
किसी की भी ज़िदगी में
कभी पूरा इंस्टॉल
नहीं हो पाता है !
'करप्ट' साइट से करो,
तो निश्चित ही वायरस
आ जाता है,
सीधे तरीके से
खुशियाँ लोड करना
बड़ा इंतज़ार कराता है,
फिर भी नहीं हो पाता है .........!!

Saturday, March 2, 2013

धूप का दुपट्टा




धूप  हौले-हौले उतार रही है 
अपना पीला दुपट्टा 
और दिखने लगे हैं 
उसके श्यामल केश 
संध्या के रूप में !
हवा से हिलते पत्ते 
मानो आसमां की बालियाँ !
कुछ ही देर में 
श्यामल केश खुल जायेंगे पूरे 
और लेंगे रूप निशा का !
पूरी रात  अपने 
लम्बे काले केश फैलाये 
निशा देगी 
थपकियाँ धरती को .....
फिर सुबह इक दस्तक से 
सूरज की 
टूटेगी निद्रा धरती की !!