ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें
बनके क्यों लौ ये दिए की , यूँ जलाती है हमें .......
हमने तो इसको मरहम दिया, हमदर्द बने
फिर भी क्यों इतना ये बेदर्द सताती है हमें !
ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
हम तो समझे थे की बस इसका ही सहारा है
ये तो अपने से बहुत दूर भगाती है हमें !
ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
कितनी संगदिल है , आँखों की तरह सूनी है
फिर भी क्या चीज़ है, जो इतना रिझाती है हमें !
ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
जब भी कुछ ज़िक्र चला हमसफर या हमदम का
खौफ़ क्यों होंठ पे लाने से दिखाती है हमें !
ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
बनके क्यों लौ ये दिए की , यूँ जलाती है हमें .......

बनके क्यों लौ ये दिए की , यूँ जलाती है हमें .......
हमने तो इसको मरहम दिया, हमदर्द बने
फिर भी क्यों इतना ये बेदर्द सताती है हमें !
ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
हम तो समझे थे की बस इसका ही सहारा है
ये तो अपने से बहुत दूर भगाती है हमें !
ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
कितनी संगदिल है , आँखों की तरह सूनी है
फिर भी क्या चीज़ है, जो इतना रिझाती है हमें !
ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
जब भी कुछ ज़िक्र चला हमसफर या हमदम का
खौफ़ क्यों होंठ पे लाने से दिखाती है हमें !
ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
बनके क्यों लौ ये दिए की , यूँ जलाती है हमें .......
बहुत सुन्दर रचना है आपकी,रचना जी.
ReplyDeleteदिल की गहराई से निकली,दिल को छूती हुई.
आभार.
होली की अग्रिम शुभकामनाएँ.
bahut bahut abhar sir , apko b holi ki badhayi :))
ReplyDeleteIske liye bs ek shbd h
ReplyDelete!!!..lajawaab..!!!
:-):-):-)
dhanywad PS ji :))
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