गर्मी में अल्हड़ बच्चे सी
इठलाती, इतराती धूप
सबको खूब सताती धूप
हाथ जोड़ मनुहार करती
फिर भी न भरमाती धूप !!
सर्दी में तरुणा जाती
देखो तो शर्माती धूप
एक झलक देने को अपनी
कितना तरसा जाती धूप !!
गर्मी का वह अल्हड़पन
जाने कहाँ धर आती धूप
जिस से बचे फिरा करते थे,
वो ही याद आ जाती धूप !!

जब आता सावन का मौसम ,
दुल्हन सी बन जाती धूप
बादल के घूंघट की ओट में
मुखड़ा अपना छुपाती धूप !!
जब बादल बरखा बनता
घूंघट उसका हटा जाता
इन्द्रधनुषी दुल्हन बनके
आभा तब बिखराती धूप !!
आदित का वरदान हमें है
धरती की चादर यह धूप
धूप एक ही, हर मौसम में
फिर भी बदले कितने रूप !!
कभी अनमना कर जाती
तो कभी सुकूँ दे जाती धूप
फिर भी हमको हर हाल में
भाती ही भाती यह धूप !!
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