रोज़ तलाश शुरू होती है
मुट्ठी भर जिंदगी की.......
ढूंढती उसे हर शय में
बालकनी की धूप में
बच्चों की मुस्कान में
किसी अपने की बातों में
कुकर की सीटी में
किसी टीवी सीरियल में
मार्केट में दुकान पर
टंगे किसी आकर्षक परिधान में
चटपटे गोलगप्पों में
पर थोड़ी-थोड़ी जोड़ कर भी
उतनी नही है हो पाती
कि एक दिन का
जीना निकल पाए !
जितनी जोड़ पाती हूँ
उसमे में भी रिस-रिस कर
बहुत अल्प रह जाती है
और मैं रह जाती हूँ
रोज़ ही घाटे में !!
जिंदगी इसी का नाम है ... तलाश ओर फिर तलाश ... फिर भी पूरी नहीं होती तलाश ...
ReplyDeleteबिलकुल ठीक कहा दिगम्बर जी :)
Deleteइतनी अच्छी पोस्ट के बाद तो बस मौन हो जाता हूँ............. नि:शब्द..!!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद दीक्षित जी !!
ReplyDeleteक्या कहूँ ... बेहतरीन अभिव्यक्ति है ....बधाई
ReplyDeleteपर थोड़ी-थोड़ी जोड़ कर भी
उतनी नही है हो पाती
कि एक दिन का
जीना निकल पाए !
जितनी जोड़ पाती हूँ
उसमे में भी रिस-रिस कर
बहुत अल्प रह जाती है
बहुत -बहुत धन्यवाद सुशील जी :)
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